
बन बारिश की बूँद समा जाना
में फ़िर तुमसे मिल जाऊँगा
तुम फ़िर मुझसे मिलकर जन
कई बार बुलाया तुमको मैंने
तुमने आना न स्वीकार किया
न जाने है कैसी चाहत
जो मिला नही उसी से मैंने प्यार किया
झकझोरा कई बार मुझे
मेरे मन के स्वाभिमानी तारों ने
जो प्यासे दिल की प्यास न समझे
व्यर्थ है जाना अमृतघट के ऐसे गलियारों में
पर क्या समझे ये मन मेरा
इस प्यास की ही तो मृगत्रिष्णा है
जो मिला इसे स्वीकार नही
अप्राप्त को समझे अपना है
लगता इसको हर बार यही की
खोने में ही इसने अपना सब कुछ पाया है
समझा न सका मे अब तक इसको
ये प्रेम है या केवल एक इक भ्रम का साया है
तुम आकार अपनी बातो से फ़िर
दो टूक इसे समझा जाना
यादों के सूखे पत्तो में
बन बारिश की बूँद समा जाना
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